संस्थान के लक्ष्य और उद्धेश्य


संस्थान को विनिमयों के उल्लेखानुसार इसके लक्ष्य व उद्देश्य निम्नलिखित हैं-


(A)

संस्थान के एक इकाई के रूप में श्री रघुबीर लायब्रेरी को हस्तगत करना, इसको समुचित रूप से सुव्यवस्थित व संगठित करना, पूर्णतया सुसमृद्ध करते रहना और इसकी समुचित सुरक्षा करना ।


(B)

संस्थान की एक इकाई के रूप में ‘श्री केशवदास अभिलेखागार’ की स्थापना, विकास और इसमें संगृहीत अभिलेखों आदि की समुचित रूपेण सुरक्षा करना ।


(C)

संस्थान की एक इकाई के रूप में ‘श्री राजसिंह संग्रहालय’ की स्थापना, उसका विकास और उसमें संगृहीत प्रदर्शनीय वस्तुओं आदि की सुरक्षा करना ।


(D)

ऐतिहासिक शोध और अध्ययनों के लिये माइक्रों फिल्मस् अथवा अन्य साधनों द्वारा प्रतिलिपियाँ तैयार करने हेतु संस्था में एक इक अस्थापित करना, उसको संगठित कर उसका समुचित विकास करना।


(E)

ऐतिहासिक शोध और अध्ययन हेतु संस्थान में आने वाले संशोधकों को सुविघाएं और आवश्यक सहयोग देना और उसके अनुरोध किये जाने पर उनका मार्गदर्शन करना।


(F)

ऐतिहासिक शोध कार्य और अध्ययन के लिए आयोजित कार्यक्रमों के अतिरिक्त संस्थान द्वारा प्रारम्भ किये जाने वाली शोध परियोजनाओं के उचित निष्पादन हेतु एक शोध-केन्द्र की स्थापना कर उसे समुचित रूपेण सुव्यवस्थित करना ।


(G)

संस्थान के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किसी भी प्रकार की वित्तीय अथवा अन्य प्रकार की सहायता प्राप्त करना ।


(H)

संस्थान के तत्वावधान में ऐतिहासिक शोध-कार्यों और अध्ययन हेतु छात्र-वृत्तियों की स्थापना करना ।


(I)

संस्थान की विभिन्न इकाइयों में उपलब्ध सामग्री और संस्थान की कार्यवाहियों आदि से संबंधित सूचियों (केटलोग) व पुस्तिकाएँ आदि प्रकाशित करना और संस्थान में हुए अध्ययन व शोध कार्यों के परिणामों के प्रकाशनार्थ समुचित कार्यवाही करना या आवश्यक सहायता सुलभ करना ।


(J)

संस्थान के उद्धेश्यों की पूर्ति हेतु अन्य संबंधित संस्थाओं द्वारा किए जा रहे कार्यों में पूर्ण सहयोग तथा सहायता प्रदान करना ।


(K)

संस्थान में ऐतिहासिक शोध-कार्यों तथा अध्ययन द्वारा ज्ञान तथा विद्या का निरन्तर विकास करना ।


संस्थापक अध्यक्ष - डा. रघुबीरसिंह


महाराजकुमार डा. रघुबीरसिंह का जन्म 23 फरवरी, 1908 ई0 को सीतामऊ रियासत की आपातकालीन राजधानी गाँव लदूना के राजमहल में हुआ था । मध्यभारत में सीतामऊ राज्य के पूर्व महाराजा सर रामसिंह के.सी.आई.ई. के ये ज्येष्ठ पुत्र थे । वर्तमान में यह स्थान म.प्र. के मन्दसौर जिले में स्थित है ।

डा. रघुबीरसिंह की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई । मिडिल की पढ़ाई के लिए उन्होंने सीतामऊ में स्थित श्रीराम हाईस्कूल में प्रवेश लिया । इसके पश्चात 1920 ई0 में डेली कालेज, इन्दौर में प्रवेश लिया किन्तु कुछ समय में अस्वस्थता के कारण उन्हें वापस लौटना पड़ा ।
हाईस्कूल की परीक्षा बाम्बे विश्वविद्यालय, बड़ोदा से 1924 ई0 में तथा इन्टरमीडिएट की परीक्षा 1926 ई0 में प्रायवेट विद्यार्थी के रूप में पास की । तदनन्तर इन्होंने 2 वर्ष तक श्रीराम हाईस्कूल, सीतामऊ में अध्यापन का कार्य भी किया । 1928 ई0 में बी.ए. की परीक्षा शिक्षक-विद्यार्थी के रूप में पास की । इसके पश्चात होलकर कालेज, इन्दौर में अध्ययन किया और 1930 ई0 में एल.एल.बी. की उपाधि आगरा विश्वविद्यालय से प्राप्त की ।

डा. रघुबीरसिंह ने इसके बाद श्रीराम हाईस्कूल में अवैतनिक शिक्षक के रूप में 3 वर्ष तक अध्यापन कार्य किया । आगरा विश्वविद्यालय से ही 1933 ई0 में इतिहास में शिक्षक विद्यार्थी के रूप में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की । इसके बाद आगरा विश्वविद्यालय से 1936 ई0 में प्रसिद्ध इतिहासकार डा0 सर जदुनाथ सरकार के निर्देशन में शोध कार्य ‘मालवा इन ट्रांजिशन’ इतिहास विषय पर उनको डी.लिट्. की उपाधि प्रदान की गई । आगरा विश्वविद्यालय से डी.लिट्. की उपाधि प्राप्त करने वाले वह पहले विद्यार्थी थे ।

छात्र जीवन में रघुबीरसिंह की रुचियाँ भी अद्भुत थी । फोटोग्राफी तथा खेल से उनका गहरा लगाव था । वे क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे । चित्रकला में भी उनकी रुचि थी । इसी रुचि के कारण उन्होंने मुम्बई के जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स से डिप्लोमा भी किया । उन्होंने 1926 से 1928 ई0 के मध्य अनेक चित्रों का चित्रांकन किया । समस्त चित्रों का विषय प्रकृति या इतिहास से संबंधित है ।

रघुबीरसिंह किशोरावस्था में ही शिक्षा ग्रहण करते हुए हिन्दी और अंग्रेजी में हस्तलिखित पत्रिका ‘किरण’ निकालते थे । यही पत्रिका उनकी वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनी । 1926 ई0 से वे हिन्दी भाषा की सरस्वती, माधुरी, चाँद, सुधा, क्षत्रिय तथा बालसखा जैसी सुप्रसिद्ध पत्रिकाओं में नियमित रूप से लिखने लगे ।

डा0 रघुबीरसिंह के विचार प्रारम्भ से ही उदारवादी थे । उन्हें मूर्त रूप देने के लिए सीतामऊ राज्य के लिए नवीन संविधान का निर्माण किया जिसे दिसम्बर 1938 ई0 में लागू किया गया । जनता की राज्य शासन में भागीदारी के लिए इसमें राज्य परिषद की व्यवस्था की गई । साथ ही इसमें शासन समिति का भी प्रवधान था । इसमें स्वयं डा0 रघुबीरसिंह दिसम्बर 1938 से अगस्त 1941 ई0 तथा जुलाई 1945 से जून 1948 ई0 तक शासन समिति के अध्यक्ष पद पर रहे। इसी प्रकार राज्य परिषद के अध्यक्ष पद पर मई 1939 से अगस्त 1941 ई0 तथा जुलाई 1945 से जून 1946 ई0 तक रहे । साथ ही 1932 से 1941 ई0 तक सीतामऊ रियासत की उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी रहे । इस दौरान राज्य की प्रशासनिक गतिविधियों के साथ ही प्रायमरी शिक्षा, स्वास्थ एवं ग्रामीण विकास की गतिविधियों में सलंग्न रहे ।

ई0 सन् 1939 में जब द्वितीय विश्व युद्ध हुआ तब ब्रिटिश सरकार ने देशी रियासतों से सहायता की अपील की । सेना, घोड़े एवं हथियार के अलावा राजकीय परिवार, जागीरदार, जमींदार के युवा लोगों से ब्रिटिश सेना में भाग लेने का दबाव डाला गया । तब राजा रामसिंह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र रघुबीरसिंह को ब्रिटिश सेना में भर्ती होने के लिए भेजा । डा0 रघुबीरसिंह ने ओ.टी.सी. (ऑफिसर ट्रेनिंग कालेज) इन्दौर में प्रवेश लिया व इण्डियन कोर के लिए सैन्य प्रशिक्षण 1 अक्टूबर 1940 से 28 फरवरी 1941 ई0 तक प्राप्त किया। इसके पश्चात डा0 रघुबीरसिंह 1 अगस्त 1941 ई0 को रावलपिण्डी में इण्डियन आब्जर्वर कोर के केप्टन पद पर नियुक्त हुए । उसके बाद 12 सितम्बर 1941 ई0 को पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित क्वेटा में स्थायी रूप से इमरजेंसी कमीशण्ड ऑफिसर के रूप में नियुक्ति की गई । इसके बाद 24 अगस्त 1942 ई0 से 10 सितम्बर 1942 ई0 तक पेशावर में ऑफिसर प्रशिक्षण प्राप्त किया तत्पश्चात पेशावर व नौशेरा में नियुक्ति हुई । इसी वर्ष अक्टूबर को डा0 रघुबीरसिंह मद्रास प्रेसीडेन्सी से अतिसंवेदनशील क्षेत्र सोपनूर व कालीकट में प्रेक्षक के रूप में विशेष तौर पर भेजे गये । यहाँ पर वे 18 अक्टूबर 1942 से 10 फरवरी 1943 तक बने रहे । तत्पश्चात तीन सप्ताह के लिए विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए जूहू (बम्बई) भेजे गये । इस विशेष प्रशिक्षण को प्राप्त करने के बाद मेजर के रूप में पदोन्नत होकर मद्रास प्रेसीडेन्सी भेजे गये । यहाँ पर उनकी प्रथम नियुक्ति पल्लावराम व इसके बाद वाल्टेयर में सेना के रूप में अन्तिम समय तक बने रहे । किन्तु अप्रेल 1945 ई0 को सेना के कमीशन को त्यागपत्र देकर चले आये ।

डा0 रघुबीरसिंह विद्यार्थी जीवन से ही राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेते रहे थे । वे चेम्बर ऑफ प्रिन्सेस के सम्मेलनों एवं कार्यवाहियों में सीतामऊ रियासत के प्रतिनिधि के रूप में सक्रिय भाग लेते थे। ब्रिटिश अधिकारियों एवं राजनैतिक प्रतिनिधियों के सीतामऊ राज्य से संबंध तथा समय-समय पर उनके दबाव से वे ब्रिटिश सत्ता के प्रति मन ही मन खिन्न हो गये थे । उन्होंने भारतीय देशी रियासतों की समस्याओं पर गम्भीर अध्ययन कर इस विषय पर एक ग्रंथ ”इण्डियन स्टेट्स एण्ड द न्यू रिजीम“ लिखी, जो 1938 में प्रकाशित हुई । यह पुस्तक भारतीय विश्वविद्यालयों में पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकृत की गई थी । इधर निरन्तर राजनैतिक गतिविधियों में दिन प्रतिदिन नये-नये बदलाव आ रहे थे । मालवा के छोटे-छोटे राज्यों एवं उसके आस-पास के भू-भागों को मिलाकर मालवा नामक प्रान्त का निर्माण 1945-47 में किया जा रहा था, जिसमें डा0 रघुबीरसिंह को 1946 ई0 में गठित सेन्ट्रल इण्डिया रीजन कमेटी में एक सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया। तब सेन्ट्रल इण्डिया एजेन्सी के अधीनस्थ ग्वालियर-इन्दौर व अन्य रियासतों को मिलाकर ‘मध्यभारत’ नाम से नया प्रान्त 1948 में बनाया गया।

डा0 रघुबीरसिंह एक प्रतिभाशाली लेखक थे । वे स्कूल के दिनों से ही हस्तलिखित पत्रिकाओं में लिखने लगे थे । 1927 ई0 से ही पत्र-पत्रिकाओं में निबंध, आलोचनात्मक समीक्षा, छोटी कहानी, ऐतिहासिक विवरण आदि लिखना आरम्भ कर दिया था । तब इन्हें हिन्दी की विशिष्ट पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाता था । राज्य का सामान्य काम निबटाते हुए भी उनमें राष्ट्रीय दृष्टि, राष्ट्रीय कर्तव्यबोध का जागरण हो चुका था । सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘चाँद’ के नवम्बर 1928 ई0 के ऐतिहासिक ‘फांसी अंक’ में प्रकाशित उनका लेख "फ्रांस की राज्य क्रान्ति के कुछ रक्तरंजित पृष्ठ" उनकी उसी राजनैतिक विचारधारा का प्रतिबिम्ब है । इस अंक के सम्पादक आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने महाराजकुमार डा0 रघुबीरसिंह के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा था - ‘आपकी कलम विद्या व्यसनी ही नहीं बल्कि गरीबों का मित्र क्रान्ति का समर्थक और जन समाज का एक नागरिक प्रमाणित करती है ।’ चाँद का यह अंक ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया था । इस अंक में अनेक सुप्रसिद्ध लेखकों ने नकलीनाम से लेख लिखे थे, किन्तु सीतामऊ राज्य के युवा राजकुमार ने अपने ही नाम से निर्भीक होकर लेख लिखा था । जिसके फलस्वरूप वे ब्रिटिश सरकार की निगाह में आ गये थे ।

किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद डा0 रघुबीरसिंह का पैतृक राज्य सीतामऊ भारतीय संघ में विलय हो गया था । अब उनके लिए किसी प्रकार का बधंन नहीं था । अतः उन्होंने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता गृहण कर राजनीति में सक्रिय होने के लिए खादी धारण कर ली । भारत गणतंत्र बनने के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल लाल नेहरू ने देश की कार्यपालिका के उच्च सदन राज्य सभा में नामांकित सदस्यों के रूप में देश के विभिन्न क्षेत्रों में ख्याति प्राप्त विद्वानों को प्रवेश कराना चाहते थे । डा0 रघुबीरसिंह साहित्य एवं इतिहास के क्षेत्र में उस समय तक प्रसिद्ध हो चुके थे । अतः उन्हें तत्कालीन मध्यभारत से राज्यसभा का सदस्य नामांकित किया गया। 13 मई 1952 ई0 को डा0 रघुबीरसिंह ने मध्यभारत से चुने गये सदस्यों कन्हैयालाल वैद्य, कृष्णकान्त व्यास, बी.एस. सरवटे तथा त्रयम्बंक दामोदर पुस्तके के साथ राज्य सभा के सदस्य के रूप में शपथ गृहण की । वे इस पद पर 1962 ई0 तक बने रहे । अपने दस वर्षीय संसदीयकाल में महत्वपूर्ण विषयों पर वाद-विवाद, वक्तव्यों व बिलों में सुधार करवाने, देश के विभिन्न प्राचीन रियासतों के अभिलेखागारों नित्य नष्ट हो रहे दस्तावेजों के समुचित रख-रखाव, भारत के बाहर अन्य देशों, इण्डिया ऑफिस लायब्रेरी, सदृश्य स्थानों से भारत संबंधी महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री को देश में लाये जाने, एक राष्ट्रीय पंचाग की आवश्यकता, शिक्षा के विविध पहलुओं एवं देश की अन्यान्य ज्वलंत समस्याओं की ओर भारत सरकार का ध्यान आकृष्ट किया।

डा0 रघुबीरसिंह को हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी, मराठी तथा फारसी के भी ज्ञाता थे साथ ही अपनी क्षेत्रीय मालवी बोली के अच्छे प्रवक्ता थे । जब भी आपको ज्ञात हो जाता कि मिलने के लिए आया हुआ व्यक्ति मालवा का है तब वे उससे तत्काल मालवी बोली में ही बातचीत प्रारम्भ कर देते । यह उनकी आत्मीयता, निरभिमान तथा मालवी प्रेम का द्योतक था । डा0 रघुबीरसिंह ने भारतीय इतिहास के शोधपरक प्रबंध एवं लेख ही नहीं लिखे वरन हिन्दी साहित्य को भी आपकी देन अमूल्य है । हिन्दी गद्य काव्य लेखन की प्रेरणा आपको रायकृष्णदास से मिली । प्रेमचंद के उपन्यासों को भी आपने पढ़ा था तथा उनसे पत्र व्यवहार भी होता था । प्रेमचंद ने ‘हंस पत्रिका’ के लिए डा0 रघुबीरसिंह से रचना भेजने का आगृह किया था । आचार्य रामचंद्र शुक्ल, जयशंकरप्रसाद आदि तत्कालीन अनेक साहित्यकारों का सानिध्य आपको प्राप्त हुआ था । डा0 रघुबीरसिंह ने हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं पर अनेक ग्रंथ लिखे । ‘बिखरे फूल’ 1933 ई0 में प्रकाशित हुआ, इसमें 14 गद्य काव्यों का संग्रह है । ‘जीवनधूलि’ 1947 ई0 में प्रकाशित हुआ जिसमें 18 गद्य काव्यों का संग्रह है । ‘सप्तदीप’ 1938 ई0 में प्रकाशित हुआ । इसमें 6 निबंध एवं एक कहानी संग्रहीत है । ‘शेश स्मृतियाँ’ का प्रकाशन 1937 ई0 में हुआ । इस ग्रंथ का गुजराती और मलयालम में अनुवाद हो चुका है । इसमें ताज, एक स्वप्न की शेष स्मृतियाँ, अवशेष, तीन कब्रें व उजड़ा स्वर्ग आदि पाँच निबंध संग्रह है । शेष स्मृतियाँ डा0 रघुबीरसिंह की कृतियों में सबसे अधिक प्रसिद्ध निबंध संग्रह है ।

महाराजकुमार डा0 रघुबीरसिंह के शोध ग्रंथ ‘मालवा इन ट्रांजिशन’ के हिन्दी संस्करण ‘मालवा में युगान्तर’ पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद द्वारा 1947 ई0 को ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ प्रदान किया गया । एक अन्य कृति ‘पूर्व आधुनिक राजस्थान’ पर उत्तरप्रदेश सरकार ने फरवरी 1955 ई0 में विशेष पुरस्कार प्रदान किया । हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद ने सितम्बर 1975 ई0 में साहित्य वाचस्पति की मानद उपाधि से सम्मानित किया । उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ ने डा0 रघुबीरसिंह को आजीवन साहित्यक सेवा के लिए 1978 ई0 में विशेष रूप से सम्मानित किया था ।

डा0 रघुबीरसिंह एक महान इतिहासवेत्ता भी थे । मध्यकालीन व उत्तर मध्यकालीन भारत के इतिहास में उनका विशेष योगदान ही नहीं रहा अपितु भावी शोधकर्त्ताओं के लिए वे आधार स्तम्भ एवं प्रेरणादायक भी रहे हैं । राजस्थान के इतिहास को समग्र रूप से देखने का सर्वप्रथम एवं सफल प्रयास डा0 रघुबीरसिंह ने ही किया । वैसे महाराजकुमार का इतिहास के प्रति लगाव मालवा के इतिहास से ही प्रारम्भ होता है । उन पर सर्वाधिक प्रभाव उनके गुरु आचार्य जदुनाथ सरकार का था । जदुनाथ सरकार ने ही राजस्थान के पुरालेखीय साधन अखबारात, गुलगुले रेकार्डस से परिचित कराया तब डा0 रघुबीरसिंह ने इण्डियन हिस्टारिकल रेकार्डस कमीशन की बैठक में जयपुर पुरालेख की सामग्री विशेषतः अखबारात पर विश्लेषणात्मक पत्र प्रस्तुत किया था। डा0 रघुबीरसिंह ने राजस्थान इतिहास विषय पर अनेक ग्रंथ लिखे परन्तु उनकी महत्वपूर्ण कृति, पूर्व आधुनिक राजस्थान है । यह ग्रंथ मूलतः साहित्य संस्थान उदयपुर के ओझा आसन के अन्तर्गत दिये गये भाषणों का परिवर्तित रूप है । यह 1527 से 1947 ई0 तक का भारतीय परिप्रेक्ष्य में समस्त राजस्थान का एक क्रमबद्ध प्रामाणिक ग्रंथ है। महाराणा प्रताप एवं दुर्गादास राठौड़ राजस्थान के ऐसे नायक हैं, जिनकी गौरव गाथाएँ राजस्थान तक ही सीमित नहीं रही अपितु भारत के सब भागों में फैली । महाराजकुमार डा0 रघुबीरसिंह की लेखनी उन पर न चले यह असम्भव है । इस ग्रंथ को दुर्गादास की जीवनी कहने के बजाए समकालीन भारतीय इतिहास कहना अधिक उपयुक्त होगा । मुगल इतिहास के लिए यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है । इसी प्रकार महाराणा प्रताप पर लिखा गया ग्रंथ की प्रमाणिकता पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। इतिहास को वर्तमान से जोड़ने के प्रयास में आधुनिक भारत को प्रताप की देन तथा उसकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालते हुए इतिहास लेखन को एक नया आयाम दिया है ।

रतलाम का प्रथम राज्य, मालवा इन ट्रांजिशन तथा इसका हिन्दी अनुवाद मालवा में युगान्तर डा0 रघुबीरसिंह के ऐसे ग्रंथ हैं जिनका सीधा मालवा के इतिहास से संबंध है किन्तु फिर भी इन ग्रंथों में राजस्थानी शासकों की गतिविधियों, उनका मालवा से संबंध, मुगल राजपूत संबंध, राजस्थानी शासकों की मालवा नीति, उनका मुगल तथा मराठों से संबंध मालवा में मराठों का सत्यनिष्ठ सुन्दर और सम्यक इतिहास लिखकर मील का पत्थर गाड़ दिया । ऐतिहासिक स्त्रोंतों और उनमें उपलब्ध सूचनाओं की डा0 रघुबीरसिंह को अपूर्व जानकारी थी । हिन्दी अंग्रेजी, फारसी, मराठी, राजस्थानी आदि के इतिहास संबंधी ग्रंथों और कागज पत्रों की सामग्री और उनमें प्राप्त हो सकने वाली सूचनाओं का भी वे सहज ही अनुमान कर लेते थे । नवीनतम खोजों पर आधारित पूर्व मध्यकालीन भारत डा0 रघुबीरसिंह द्वारा लिखित ऐसा ग्रंथ है जिसमें दिल्ली की तत्कालीन मुसलमानी सल्तनत के उत्थान, विकास और पतन का सर्वथा नये ढंग से लिखा गया क्रमबद्ध आलोचनात्मक इतिहास है । मालवा के महान विद्रोहकालीन अभिलेख डा0 रघुबीरसिंह द्वारा सम्पादित ऐसा ग्रंथ है जो 1857 के महान विद्रोह के समय सीतामऊ राज्य का वकील इन्दौर स्थित एजेन्ट टू दि गवर्नर जनरल के यहाँ नियुक्त था उसके द्वारा भेजे गये पत्र 1857-58 ई0 की घटनाओं पर प्रकाश डालते है ।

ऐतिहासिक ग्रंथों की रचना के साथ ही ऐतिहासिक आधार स्त्रोतों का व्यापक स्तर पर संकलन, सम्पादन एवं अनुवाद करने का कार्य भी डा0 रघुबीरसिंह ने किया है । उनका इस क्षेत्र में योगदान मौलिक ग्रंथों के प्रणयन से कम नहीं है । उनके सम्पादित ग्रंथों में शाहजहाँनामा, जहाँगीरनामा, फुतूहात-इ-आलमगीरी, हिस्ट्री ऑफ़ जयपुर, रतनरासो और वचनिका आदि अनेक ग्रंथ, ‘ए शार्ट हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब का हिन्दी अनुवाद ‘औरंगजेब’ एवं विभिन्न शोध पत्रों अकबरकालीन विभिन्न केशवदास, रायसेन का शासक सलहदी तंवर, मध्यकालीन मन्दसौर में हुई भारतीय इतिहास की कुछ निर्णायक घटनाएँ, मराठा शासकों, सेनानायकों और अधिकारियों के हिन्दी पत्र-सनदें, रामपुरा क्षेत्र वहाँ का चन्द्रावत राजवंश, झाबुआ राज्य और बोलिया (बुले) बखर, होलकर का नमक हराम बख्शी भवानीशंकर, पेशवा राज्य की सम्पर्क भाषा हिन्दी, मुहम्मद तुगलक का राजधानी परिवर्तन, धरमाट का युद्ध और महेशदास कृत बिन्हैरासो, अहमदनगर का किला और उसकी विभिन्न भूमिकाएँ, भारतवर्ष के इतिहास की कुछ गलतियाँ, कीर्तिस्तम्भ आदि विभिन्न शोध पत्रों और ग्रंथों से डा0 रघुबीरसिंह ने लुप्त कड़ियों को जोड़ा और नूतन जानकारी प्रस्तुत की ।

डा0 रघुबीरसिंह के इतिहास दर्शन में एक विशेषता और थी कि जो मूल ग्रंथ उन्हें प्राप्त नहीं हो सकते थे उनकी प्रतिलिपियाँ करवाकर संगृहीत करने में भी उन्होंने तत्परता दिखाई थी जो संस्थान के अनेक संगृहों से स्पष्ट होती है । उन्होंने पं0 गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पं0 रामकरण आसोपा जैसे अनेक विद्वानों के सौजन्य से महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ निजी व्यय पर अध्ययन के लिए प्राप्त की थी । इनमें अधिकांश राजस्थानी के ऐतिहासिक गद्य ग्रंथ थे । जिनमें से दो महत्त्वपूर्ण जोधपुर हुकूमत री बही तथा जोधपुर राज्य की ख्यात सम्पादित कर प्रकाशित करवाई । ये मारवाड़ इतिहास के लिए नहीं इसके पड़ोसी राज्यों के लिए भी बड़ी उपयोगी है । इसमें राठौड़ों की वास्तविक उपलब्धियों का विवरण मिलता है । शिवाजी की जन्मतिथि के प्रसंग में भारत इतिहास संशोधक मण्डल पूना में दीर्घकालीन वाद-विवाद चला तब डा0 रघुबीरसिंह ने प्रामाणिक साक्ष्यों के आघार पर ‘करेक्ट डेट एण्ड इयर आफ शिवाजीस बर्थ, बेसड आन फ्रेश नियर काण्टमपरेरी एविडेन्स फ्राम राजस्थानी कलेक्शन’ शोध लेख लिखकर पूर्व में स्वीकृत जन्म तिथि के लिए राजस्थान पक्षीय आधार सामग्री प्रस्तुत कर शिवाजी की सही तिथि को निर्धारित करने में सहायता की । डा0 रघुबीरसिंह के इतिहास लेखन कार्य का सीमा क्षेत्र मराठों के इतिहास जैसा विस्तृत था । मराठा इतिहास के शोध जगत में उन्होंने गणितीय सरलता प्रस्थापित कर किसी सरकार का समर्थन न होते हुए भी सन् 1928 ई0 से मध्यभारत में मराठों का शोध कार्य जारी रखकर उसे शास्त्री दिशा देने का सफल कार्य किया ।

डा0 रघुबीरसिंह ने राजस्थानी, मराठी, फारसी संसाधनों के अतिरिक्त अनेक छोटे बड़े विषयों पर शोधपूर्ण पत्र लिखे और कितने ही संशोधकों को संसाधनों की जानकारी दी और उनकी शंकाओं का निवारण भी सयत्न किया । यदि उनके ऐसे समस्त शोधपूर्ण प्रकाशित लेखों और पत्रों का मूल्यांकन किया जाए तो अलग-अलग विषयों पर एक से अधिक शोध प्रबंध लिखे जा सकते है । परन्तु उपरोक्त विवेचन से यह अवश्य अनुमान लगाया जा सकता है कि वे स्थानीय साधन स्त्रोतों को कितना महत्त्व देते थे । वे मध्यकालीन भारतीय इतिहास के ऐसे प्रबुद्ध इतिहासकार थे जिन्होंने खुले मानस से फारसी, मराठी और राजस्थानी ऐतिहासिक आधार ग्रंथ एकत्रित कर उनके महत्त्व के बीच संतुलन ही स्थापित नहीं किया अपितु उनका संतुलित रूप से उपयोग कर ऐसे इतिहास ग्रंथों का निर्माण भी किया जो वर्तमान और भावी इतिहसकारों के लिए सदा उपयोगी और प्रेरणादायी सिद्ध होंगे ।

पूर्व अध्यक्ष - श्री कृष्णसिंह राठौर


महाराजा श्री कृष्णसिंहजी राठौर का जन्म 18 नवम्बर, 1934 ई0 को हुआ था । आप महाराजकुमार डा0 रघुबीरसिंहजी के ज्येष्ठ पुत्र थे आपकी माता का नाम मोहनकुमारी था ।

कृष्णसिंह जी राठौर की प्रारंभिक से लेकर हाईस्कूल तक की शिक्षा सीतामऊ में ही हुई थी। आपने हाईस्कूल की परीक्षा श्रीराम विद्यालय, सीतामऊ से 1949 ई0 में शिक्षा मण्डल अजमेर के अन्तर्गत पास की । इण्टरमीडिएट 1951 ई0 में डेली कालेज, इन्दौर से म.प्र. शिक्षा मण्डल भोपाल के तहत उत्तीर्ण की ।

बी.ए. अगारा विश्वविद्यालय, आगरा के अन्तर्गत 1953 ई0 में सेण्ट जोंस कालेज, आगरा से उत्तीर्ण की । एम.ए. इतिहास विषय में सेण्ट जोंस कालेज, आगरा से ही 1955 ई0 में उत्तीर्ण की । 1958 ई0 में दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली से एल.एल.बी. की । 1959 ई0 में दिल्ली विश्वविद्यालय से ही सर्टिफिकेट ऑफ प्रोफिशएन्सी इन ला की डिग्री प्राप्त की। 1959 ई0 में ही आपका चयन भारतीय पुलिस सेवा के लिये हो चुका था तदनन्तर 30 अक्तूबर, 1959 ई0 में आपने अपना पदभार ग्रहण कर लिया था । तत्पश्चात सहायक अधीक्षक पुलिस के प्रशिक्षण हेतु उसी वर्ष अक्तूबर, 1959 से अक्तूबर 1960 ई0 तक आप आबू में रहे तथा नवम्बर 1960 ई0 से नवम्बर 1961 ई0 तक रीवा में प्रशिक्षण प्राप्त किया । उपरोक्त प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात आपकी नियुक्ति एस.ए.एफ. इन्दौर में प्रथम बटालियन के सहायक कमांडेण्ट पद पर हुई। इस पद पर आप दिसम्बर 1961-जून 1962 ई0 तक रहे । उसके पश्चात् जून 1962 से जून 1963 ई0 तक आप अलीराजपुर में सब डिवीजन ऑफिसर पुलिस के पद पर रहे । जून 1963 से जून 1964 ई0 तक सी.एस.डब्ल्यू.टी. इन्दौर के डिप्टी कमाण्डेण्ट रहे । जून 1964 ई0 से जनवरी 1965 ई0 तक एस.ए.एफ. इन्दौर की प्रथम बटालियन के कमाण्डेण्ट रहे । जनवरी से जून 1965 ई0 तक नेशनल पुलिस अकादमी, आबू में ‘एडवान्स्ड कोर्स‘ करने के बाद जुलाई 1965 ई0 में आपकी नियुक्ति शिवपुरी में अधीक्षक पुलिस के पद पर हुई । इस पद पर आप अप्रेल 1967 ई0 तक रहे थे । जुलाई 1967 ई0 से अक्तूबर 1968 ई0 तक आप आय.बी., नई दिल्ली में सहायक निदेशक के पद पर रहे । तदनन्तर राष्ट्रीय पुलिस अकादमी आबू में सहायक निदेशक (एड्रजुटेण्ट) स्थानान्तरित हुए, अक्तूबर 1968 से जनवरी 1973 ई0 आप उसी पद पर रहे थे । तदनन्तर जनवरी 1973 से जून 1973 ई0 तक झाबुआ में अधीक्षक पुलिस के पद पर रहे । जून 1973 से जनवरी 1974 ई0 तक एस.ए.एफ. (15 बटेलियन) के कमांडेण्ट रहे । उसके पश्चात् बेसिक ट्रेनिंग सेण्टर सीमा सुरक्षा बल एकेडमी टेकनपुर के कमांडेण्ट नियुक्त हुए जो मार्च 1977 ई0 तक रहे । मार्च 1977 ई0 से दिसम्बर 1977 ई0 तक आप डिप्टी इन्स्पेक्टर जनरल के पद पर बी.एस.एफ. अगरतला (त्रिपुरा) में नियुक्त रहे । वहाँ से आपका स्थानान्तरण डी.आय.जी. कमांडेण्ट सिग्नल ट्रेनिंग स्कूल बी.एस.एफ. हेड क्वार्टर, नई दिल्ली में हुआ । वहाँ जनवरी से अप्रेल 1978 ई0 के बीच रहे । तदनन्तर मई 1978 से दिसम्बर 1978 ई0 तक डिप्टी कमांडेण्ट (डी.आय.जी.) बी.एस.एफ. एकेडमी टेकनपुर में पदस्थ रहे । अक्तूबर 1979 से अप्रेल 1983 ई0 तक टेकनपुर में ही टीयर स्मोक यूनिट (अश्रुगैस इकाई) के जनरल मैनेजर रहे । इसी दौरान जनवरी से अप्रेल 1982 ई0 तक बी.एस.एफ. एकेडमी टेकनपुर के डायरेक्टर (आफिसियेटिंग) का प्रभार भी आपने संभला था । मई 1983 से जनवरी 1986 ई0 तक आप आर्म्ड पुलिस ट्रेनिंग कालेज (ए.पी.टी.सी.) इन्दौर के डिप्टी इन्स्पेक्टर जनरल के पद पर नियुक्त हुए । तत्पश्चात् जनवरी 1986 से अक्तूबर 1988 ई0 तक बी.एस.एफ. जोधपुर के इन्स्पेक्टर जनरल के पद पर रहे । इस पद पर गुजरात एवं राजस्थान दोनों प्रान्तों की पाकिस्तान से लगी सीमा पर कार्यभार संभाला । तदनन्तर वहाँ से उनका स्थानान्तरण ए.पी.टी.सी. इन्दौर मे हुआ वहाँ वह 1988 से अप्रेल 1991 ई0 तक इसी पद पर बने रहे । अप्रेल 1991 ई0 से 1992 ई0 तक एडिशनल डायरेक्टर लोकायुक्त (एस.पी.ई.) तथा जनवरी से मई 1992 तक एडिशनल डायरेक्टर जनरल (ट्रेनिंग) पद पर पुलिस हेडक्वार्टर भोपाल में पदस्थ रहे थे । मई 10, 1992 ई0 में आप मध्यप्रदेश के पुलिस महानिदेशक (डी.जी.पी.) पद पर नियुक्त हुए । इसी पद पर रहते हुए 30 नवम्बर 1992 ई0 को आप सेवा निवृत्त हो गये थे ।

श्री कृष्णसिंह राठौर साहब की उपलब्धियाँ, कोर्सेस एवं प्रशिक्षण

विरासत में मिली विचारधारा के तहत अपने आपको शिक्षा को समर्पित करते हुए महाराजा कृष्णसिंह राठौर साहब ने पुलिस सेवा में रहते हुए भी अपनी सेवा से संबंधित तथा अपने कार्य से हटकर अनेक कोर्स एवं प्रशिक्षण प्राप्त किये थे ।

इसके तहत आपने आय.पी.एस. प्रक्षिक्षण 1959-60 ई0 में सी.पी.टी.सी. आबू से प्राप्त किया था । एम.पी.पी.सी. सागर से उन्होंने 1961 ई0 में अश्रुगैस कोर्स किया था । 1962 ई0 में प्लाटून शास्त्र कोर्स इन्फेन्ट्री स्कूल मऊ से किया था । 1963 ई0 में प्रशिक्षण विधि का प्रशिक्षण सैनिक शिक्षण केन्द्र पंचमढ़ी से प्राप्त किया था । 1965 ई0 में उन्होंने एन.पी.ए. आबू से एडवान्सड कोर्स किया था । 1967 ई0 में आय0बी0 ट्रेनिंग सेण्टर में ‘बेसिक इन्टेलिजेन्स‘ कोर्स नई दिल्ली से किया था । तदनन्तर 1978 ई0 में आय.सी.एफ.एस. नई दिल्ली से रिसर्च मेथडोलाजी का प्रशिक्षण प्राप्त किया था । 1980 ई0 में आय.आय.पी.ए. नई दिल्ली से प्रबंध (पब्लिक अंडरटेकिंग) का कोर्स किया था, 1987 ई0 में एन.पी.ए. हैदराबाद से ‘उच्च परस्पर संबंध‘ का प्रशिक्षण प्राप्त किया । इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन (आई.आई.पी.ए.) का प्रशिक्षण 1989 ई0 में ए.एस.सी.आय. हैदराबाद से प्राप्त किया । टेक्नोलोजी के उपयोग का प्रशिक्षण राठौर सा0 ने 1990 ई0 में डी.सी.पी.सी. नई दिल्ली से प्राप्त किया था ।

इन सभी प्रशिक्षणों के अतिरिक्त उसी दौरान उन्होंने 1977 तथा 1979 ई0 के मध्य भारतीय घुड़सवारी संघ नई दिल्ली द्वारा आयोजित अश्वारोही कोर्स तथा 1978 ई0 और 1981 ई0 में उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के जज और कोच क्लीनिक्स में प्रशिक्षण प्राप्त किया था ।

श्री के0एस0 राठौर सा0 की गतिविधियाँ अपने पद से संबंधित ही नहीं अपितु अपने वंश की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने अनेक उपलब्धियाँ हांसिल की थी । वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे अपनी उपलब्धियों की उन्होंने एक लम्बी शृंखला तैयार की थी । वे उपलब्धियाँ निम्न हैं

  श्री कृष्णसिंह जी राठौर द्वारा 1963 ई0 में अस्त्र-शस्त्र का एक केन्द्रीय विद्यालय स्थापित किया गया था ।

  1988-1991 ई0 तक यूथ होस्टल एसोशियेसन भारत की इन्दौर शाखा के आप सभापति रहे ।

  विश्व वन्य जीवन फण्ड के आप आजीवन सदस्य रहे ।

  भारतीय लोक प्रशासन संस्थान के भी आप आजीवन सदस्य रहे ।

  जोधपुर तथा जैसलमेर में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय रेगिस्तान के प्रसिद्ध त्यौहार में विशेष रुचि लेकर उसे प्रोत्साहित किया तथा सीमा सुरक्षा बल के विख्यात टेट्टू शो तथा बी.ओ.पी. ओर्केस्ट्रा लेकर सम्मिलित हुए। इसी दौरान आपने बी.एस.एफ. का विश्वविख्यात एवं "गिनेज बुक ऑफ रिकार्ड्स" में वर्णित "केमल माऊन्टेड ब्रास बेण्ड" का निर्माण किया।

  1986 ई0 में भारत-पाक सीमा पर केमल सफारी का संगठन किया तथा 1987 ई0 में राजस्थान, गुजरात और पाकिस्तान सीमा पर ऊँटों की रिले दौड़ करवायी ।

  मार्च, 1992 ई0 में भोपाल में राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय अश्वारोही प्रतियोगिताओं का आयोजन किया ।

  मई, 1991 ई0 में इन्टेक ; (INTACH) के क्षेत्रीय कनवेनर रहे ।

  भारतीय रेडक्रास सोसायटी के आप आजीवन सदस्य रहे ।

  अगस्त, 1991 ई0 से श्री नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ के अध्यक्ष एवं निदेशक रहे ।

  1991 ई0 में भारतीय "शो जम्पिंग टीम" के कोच होकर टीम तथा व्यक्तिगत प्रतियोगिताओं में टोकियो (जापान) में दो रजत पदक प्राप्त करवाये ।

  1996 ई0 में भारतीय ”ड्रेसाज“ टीम के सदस्य तथा कोच रहकर बंगकोक (थाईलेण्ड) में चौथा स्थान प्राप्त किया ।

  रायल एशियाटिक सोसायटी, लंदन के भी आप सदस्य थे ।

  1970-1985 ई0 के मध्य अखिल भारतीय पुलिस अश्वारोही प्रतियोगिताओं के आयोजन किये ।

  राष्ट्रीय पुलिस, मध्यप्रदेश तथा सीमा सुरक्षा बल की अश्वारोही टीमें तैयार करके उन्हें प्रशिक्षित किया जो आगे जाकर देश की श्रेष्ठतम टीमें रहीं ।

   नवम्बर, 1975 ई0 में बी.एस.एफ. की टीम अन्तर्राष्ट्रीय टेट्टू शो मस्कत (ओमान) में आप ही के नेतृत्व में ले जायी गयी

  आप अन्तराष्ट्रीय अश्वारोही पेनल के जज एवं कोच भी रहे ।

  1973 ई0 से 1998 ई0 तक आप भारतीय अश्वारोही संगठन के कार्यपालन कमेटी के सदस्य रहे तथा साथ ही पांच बार इसके उपाध्यक्ष भी रहे । साथ ही साथ दो बार (3-3 वर्ष के लिए) आप इसकी चयन समिति के अध्यक्ष भी रहे । इस संगठन के आप आजीवन सदस्य रहे ।

  1977 ई0 में आपने डी.आय.जी. का कार्य सफलतापूर्वक बी.एस.एफ. त्रिपुरा में भारत- बांग्लादेश सीमा पर किया ।

  979 से 1983 ई0 तक टेकनपुर के अश्रुगैस संगठन के मुख्य प्रबंधक के रूप में अपने निरीक्षण में इतना समृद्ध किया कि इससे प्रतिवर्ष 120 प्रतिशत उत्पादन बढ़ गया ।

  1983-85 ई0 के दौरान इन्दौर में सशस्त्र पुलिस कॉलेज की स्थापना कर उसे सुदृढ़ रूप प्रदान किया।

   जनवरी, 1986-अक्तूबर, 1988 ई0तक महानिरीक्षक पुलिस बी.एस.एफ. के पद पर रहते हुए आपने राजस्थान एवं गुजरात दोनों प्रान्तों का कार्यभार संभाला । इस दौरान इन प्रान्तों की सीमा पर प्रत्येक क्षेत्र जैसे- आपरेशन इन्टेलीजेंस, खेलकूद, शूटिंग, सांस्कृतिक गतिविधियाँ, वेलफेअर, विभिन्न निर्माण कार्य, हाउसिंग, नई बटालियन रेजिंग सभी कार्य उन्नति के शिखर पर रहे ।

श्री के.एस. राठौर साहब ने न केवल भारत अपितु विदेशों में भी अपने देश का गौरव बढ़ाने के लिये अनेक विदेश यात्राएं की तथा अनेक उपलब्धियाँ हांसिल की थीं । उनके द्वारा विभिन्न उद्देश्यों से की गयीं विदेश यात्राएं निम्न थीं - 1964 ई0 में उन्होंने यूरोप, मिश्र, तथा बेरून की यात्राएं की थी । ये यात्राएं उन्होंने अवकाश काल के दौरान की थीं । 1972 ई0 ओब्जर्वर के रूप में म्यूनिख ओलम्पिक, आयरलेण्ड, जर्मनी, आस्ट्रिया (विएना) की यात्राएं की थीं । बी.एस.एफ. की घुड़सवारी टीम तथा बेण्ड टीम के साथ अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शन टेटू शो में भाग लेने के लिए 1975 ई0 में ओमान की यात्रा की थी । श्री के.एस. राठौर साहब ने न केवल भारत अपितु विदेशों में भी अपने देश का गौरव बढ़ाने के लिये अनेक विदेश यात्राएं की तथा अनेक उपलब्धियाँ हांसिल की थीं ।

उनके द्वारा विभिन्न उद्देश्यों से की गयीं विदेश यात्राएं निम्न थीं

1964 ई0 में उन्होंने यूरोप, मिश्र, तथा बेरून की यात्राएं की गयी थी । ये यात्राएं उन्होंने अवकाश काल के दौरान की थीं ।

1972 ई0 ओब्जर्वर के रूप में म्यूनिख ओलम्पिक, आयरलेण्ड, जर्मनी, आस्ट्रिया (विएना) की यात्राएं की थीं । बी.एस.एफ. की घुड़सवारी टीम तथा बेण्ड टीम के साथ अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शन टेटू शो में भाग लेने के लिए 1975 ई0 में ओमान की यात्रा की थी। 1986 ई0 में इग्लैण्ड फ्रांस स्विटजरलेण्ड आदि देशों की यात्रा अध्ययन टूर के रूप में की थी । 1990 ई0 में घुड़सवारी तथा अन्तराष्ट्रीय पेनल के जज, कोच तथा ओब्जर्वर के रूप में इग्लैण्ड इटली, स्विटजरलेण्ड तथा आस्ट्रिया की यात्रा की । भारतीय घुड़सवारी टीम के कोच तथा मैंनेजर के रूप में जापान, हांगकांग की 1991 ई0 में तथा बैंगकांक की 1996 ई0 में यात्राएं की थी ।

श्री नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ के अध्यक्ष के रूप में उपलबिधयाँ निम्न हैं

जैसाकि पूर्व विदित है कि कृष्णसिंहजी राठौर महाराजकुमार डा0 रघुबीरसिंहजी की ज्येष्ठ संतान थे । डा0 रघुबीरसिंहजी के पिता राजा रामसिंहजी का निधन 25 मई, 1967 ई0 को हुआ । पिताजी की मृत्यु के पश्चात् ज्येष्ठ पुत्र ही राजगद्दी का उत्तराधिकारी होता है, ऐसा सामान्य नियम है । परंतु डा0 रघुबीरसिंह तो साहित्य एवं इतिहास के अनुरागी थे उन्होंने राजगद्दी पर बैठने से मना कर दिया तब कृष्णसिंहजी राठौर सा0 सीतामऊ की राजगद्दी पर बैठे और सभी पारिवारिक जिम्मेदारियों को बड़ी कुशलता से निभाया । 13 फरवरी, 1991 ई0 को महाराजकुमार डा0 रघुबीरसिंहजी का निधन हो गया तब उनके द्वारा स्थापित इतिहास के तीर्थस्थल श्री नटनागर शोध संस्थान के अध्यक्ष का पद भी खाली हो गया । तब को श्री कृष्णसिंहजी राठौर ने संस्थान के अध्यक्ष पद को संभाला । इस पद पर रहते हुए उन्होंने अपने पिता की आकांक्षाओं पर खरा उतरते हुए संस्थान को आगे बढ़ाने के प्रयासों में अपना अमूल्य सहयोग दिया । उनके अध्यक्ष एवं निर्देशन में संस्थान ने उपलबिधयाँ अर्जित कीं ।

उन्होंने अपने निर्देशन में निम्न सेमिनारों का आयोजन किया

नवम्बर, 1991 ई0 को "पूर्व आधुनिक मध्यप्रदेश का राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक अध्ययन" विषय पर द्वि-दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था । साथ ही ”मालवा का सांस्कृतिक इतिहास“ विषय पर 24-12-1991 ई0 को परिसंवाद रखा गया । संगोष्ठी का उदघाटन महामहिम कुंवर मेहमूद अली खाँ राज्यपाल, मध्यप्रदेश के कर-कमलों द्वारा किया गया तथा अध्यक्षता तत्कालीन गृहमंत्री माननीय श्री कैलाशजी चावला ने की थी । इस संगोष्ठी में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब और दिल्ली आदि विभिन्न प्रान्तों के लगभग 150 विद्वानों ने भाग लिया था ।

फरवरी, 23-25, 1994 ई0 को त्रि-दिवसीय संगोष्ठी "मालवा का इतिहास" विषय पर तथा ”मंदसौर (दशपुर) के शैलचित्र“ विषय पर आयोजन किया गया । संगोष्ठी का उदघाटन इतिहासविद् प्रोफेसर हीरालाल गुप्त, ने किया तथा अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के पूर्व कुलपति प्रो. के.के. केमकर ने की । इस संगोष्ठी में 63 प्रतिनिधियों ने भाग लिया ।

मई 15-17, 1996 ई0 को "मध्यकालीन और उत्तर मध्यकालीन मालवा, गुजरात और राजस्थान का इतिहास विषय पर आयोजित की गयी । संगोष्ठी का उदघाटन प्रोफेसर ए0आर0 अब्बासी, उप कुलपति, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर ने किया । इसमें 60 विद्वानों ने भाग लिया । दिसम्बर 13-15, 1998 ई0 को "मध्यकालीन राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के निर्णायक युद्ध" विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया था । उदघाटन सांसद डा0 लक्ष्मीनारायणजी पाण्डेय द्वारा किया गया । इस संगोष्ठी में देश के विभिन्न प्रान्तों के 65 विद्वानों ने भाग लिया ।

नवम्बर 24-25, 2000 ई0 को "मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र एवम् उत्तर भारत की राजस्व व्यवस्था (16वीं से 19वीं शताब्दी तक)" विषय पर त्रि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया । इस संगोष्ठी का उदघाटन माननीय श्री सुभाषकुमार सोजतिया, तत्कालीन लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण तथा जन संपर्क मंत्री, मध्यप्रदेश शासन, ने किया । संगोष्ठी में विभिन्न प्रान्तों के लगभग 60 विद्वानों ने भाग लिया ।

जनवरी 10-12, 2003 ई0 को "भारत के दुर्ग (इतिहास में उनका सामरिक दांवपेच तथा व्यवहारिक भूमिका तथा उनका भविष्य” विषय पर त्रि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया । संगोष्ठी का उदघाटन भारत के उप उच्चायुक्त डा. टी.सी.ए. राघवन ने किया । इस संगोष्ठी में राष्ट्र के विभिन्न प्रान्तों के लगभग 85 विद्वानों ने भाग लिया ।

मार्च 11-12, 2006 ई0 को द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी "भारत के आक्रामक एवं आक्रमण" विषय पर आयोजित की गयी । संगोष्ठी का उदघाटन माननीय डा0 लक्ष्मीनारायणजी पाण्डेय, सांसद ने किया। इस संगोष्ठी में देश के विभिन्न प्रान्तों के लगभग 60 विद्वानों ने भाग लिया ।

2007 ई0 में एक दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन श्री नटनागर शोध संस्थान सीतामऊ में 1857 पर किया । फरवरी 23-26, 2008 ई0 को राजनिवास गढ़ लदूना में महाराजकुमार डा0 रघुबीरसिंहजी जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर चार दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसमें महाराजकुमार डा0 रघुबीरसिंहजी के व्यक्तित्व, कृतित्व, 1857 की क्रांति तथा इतिहास की शोध पद्धति पर विभिन्न विद्वानों ने अपने शोध पत्रों का वाचन किया । इस संगोष्ठी में 106 विद्वानों ने भाग लिया ।

वर्तमान अध्यक्ष - श्री पुरंजयसिंह राठौर


वर्तमान अध्यक्ष श्री पुरंजयसिंह राठौर का जन्म 1 जुलाई, 1971 ई. को मुम्बई में हुआ आपके पिता सीतामऊ रियासत के पूर्व महाराजा श्री कृष्णसिंह राठौर तथा माता महारानी श्रीमती योगेश्वरीकुमारी, सुपुत्री स्व. महाराणा भगवतसिंह, उदयपुर हैं।

पुरंजयसिंह ने अपनी नियमित प्रारम्भिक शिक्षा की शुरूआत सिन्धिया स्कूल, ग्वालियर तथा इन्दौर के ऐतिहासिक स्कूल डेली कालेज से की। ।

आप इस विद्यालय में वंशानुगत राजघराने के चैथी पीढ़ी के विद्यार्थी थे । आपने दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र विषय में बी.ए. (ऑनर्स) की डिग्री प्राप्त कर आप स्विट्जरलेण्ड गये, जहाँ आपने इन्स्टीट्यूट होटलियर सेसर रिटज से होटल मेनेजमेन्ट का प्रशिक्षण पूर्ण किया और बाद में इण्टरनेशनल कालेज ब्रिग, स्विटजरलेण्ड से आप इण्टरनेशनल हास्पिटलिटी एण्ड टूरिज्म से बी.एस-सी. किया । होटल इण्डस्ट्री की तरफ आपका झुकाव आपके नाना मेवाड़ के महाराणा भगवतसिंह जो 1960 के पूर्व के पथ प्रदर्शक रहे थे । वे प्रथम भारतीय शासक थे जिन्होंने अपने महल को होटल के रूप में परिवर्तित किया। युवा पुरन्जय का लालन-पालन भारत तथा विदेश के होटलों में हुआ । आप यूरोप में कई बार अंशकालीन समय के लिए गये । आपकी प्रथम नियुक्ति अमेरिका स्थित हेयाट रीजन्सी होटल डल्लस/फोर्ट वर्थ 1996 में हुई थी जहाँ इस समूह में कार्य किया । आपने यात्राएँ की और साइपैन के द्वीप में कार्य किया । आपने जापान, कोरिया तथा मुम्बई में भी कार्य किया । आप 2003 ई. में ओबेराय ग्रुप के होटलों में आए और दिलचस्प पदों पर आय टी सिटी बंगलौर से रणथम्भौर के शेरों तथा अब वर्तमान में दिल्ली के काँकरीट जंगल द ओबेराय में जनरल मैनेजर के पद पर पदस्थ हैं ।

पुरंजयसिंह अपने पिता तथा पूर्वजों के समान प्रकृति व जानवरों से अत्यधिक प्रेम रखते हैं । आपका उनसे असीम प्रेम है । आप अध्ययन, गोल्फ और क्रिकेट के शौकीन हैं । जब आप अपने कुत्तों के साथ समय व्यतीत करते है तब अत्यन्त प्रसन्नता महसूस करते हैं ।

पुरंजयसिंह का विवाह हिमाचल प्रदेश के कुठार के राना अरुण सेन तथा रानी निम्मी सेन की सुपुत्री राजकुमारी अरुणिमा के साथ हुआ ।

साहित्यिक श्रृंखला में जो सीतामऊ राजघराने में व्यक्तिगत जीवन में सदैव पूर्णता परिभाषित किया और आप स्कूल तथा कालेज के जीवन में देश और विदेश में अच्छे छात्र के रूप में पुरस्कृत हुए ।

पुरंजयसिंह सीतामऊ की साहित्यिक महत्ता तथा रीति-रिवाज, परम्परा में अत्यधिक दृढ़ स्थित हैं । साथ ही आप आधुनिक युग तथा व्यावसायिक संसार में विश्वव्यापी स्तर पर अनावरण करते हैं । आपका स्वप्न है कि नटनागर ऐतिहासिक संस्थान, सीतामऊ को अन्तर्राष्ट्रीय दर्जा तथा मान्यता मिले ताकि आपके दादा, डा. रघुबीरसिंहजी जिन्होंने सम्पूर्ण जीवन कार्य किया, उनके सम्मान के लिए अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करना है । साथ ही आपकी हार्दिक इच्छा है कि सीतामऊ साहित्यिक और ऐतिहासिक क्षेत्र में विश्व के नक्शे में अग्रणी हो । सीतामऊ को शैक्षणिक क्षेत्र में ही नहीं आर्थिक क्षेत्र में भी लाभ हो और विगत समय के स्वर्णिम दिन के समान इस क्षेत्र में सुख और समृद्धि वापस लौटे ।